फिलिप्पियों के नाम पौलुस प्रेरित की पत्री
लेखक
पौलुस स्वयं दावा करता है कि उसने यह पत्र लिखा है (1:1) तथा भाषा, शैली, ऐतिहासिक तथ्य इसकी पुष्टि करते हैं। आरम्भिक कलीसिया भी विषमता रहित पौलुस के लेखक होने और अधिकार की चर्चा करती है। फिलिप्पी की कलीसिया को लिखा गया यह पत्र मसीह का मन प्रकट करता है (2:1-11)। इस पत्र को लिखते समय पौलुस कारागार में था परन्तु वह आनन्दित था। यह पत्र हमें सिखाता है कि कठिनाइयों और कष्टों में भी मसीह के विश्वासी आनन्द का अनुभव कर सकते हैं। हमारे आनन्द का कारण मसीह में हमारी आशा है।
लेखन तिथि एवं स्थान
लगभग ई.स. 61
पौलुस ने फिलिप्पी की कलीसिया को यह पत्र रोम के कारागार से लिखा था (प्रेरि. 28:30)। इस पत्र का वाहक इपफ्रुदीतुस था। वह फिलिप्पी की कलीसिया की ओर से पौलुस के लिए आर्थिक भेंट लेकर रोम आया था (फिलि. 2:25, 4:18)। वहाँ आकर इपफ्रुदीतुस बहुत बीमार हो गया था और इस कारण वह शीघ्र घर नहीं लौट पाया था। यही कारण था कि पत्र भी विलम्ब से पहुँचा (2:26,27)।
प्रापक
फिलिप्पी की कलीसिया, फिलिप्पी मकिदुनिया का एक प्रमुख नगर था।
उद्देश्य
पौलुस कलीसिया को अपने कारावास की परिस्थितियों से (1:12-26) और वहाँ से मुक्त हो जाने पर उसकी क्या योजना है उससे अवगत कराना चाहता था (2:23-24)। ऐसा प्रतीत होता है कि उस कलीसिया में कलह और विभाजन थे। अतः पौलुस दीनता के द्वारा एकता के विषय में लिखता है (2:1-18; 4:2-3)। पास्तरीय धर्मशास्त्री, पौलुस नकारात्मक शिक्षा और कुछ झूठे शिक्षकों के परिणामों के बारे में सीधा प्रतिवादी पत्र लिखता है (3:2,3)। पौलुस ने तीमुथियुस को कलीसिया की देख-रेख को सौंपना तथा इपफ्रुदीतुस के स्वास्थ्य एवं अपनी योजनाओं के बारे में चर्चा की है (2:19-30)। पौलुस उनकी आर्थिक भेंट एवं उसके प्रति उनकी चिन्ता के लिए भी आभार व्यक्त करता है (4:10-20)।
मूल विषय
आनन्द भरा जीवन
रूपरेखा
1. नमस्कार — 1:1, 2
2. पौलुस की परिस्थिति एवं कलीसिया को प्रोत्साहन — 1:3-2:30
3. झूठे शिष्यों के विरुद्ध चेतावनी — 3:1-4:1
4. अन्तिम प्रबोधन — 4:2-9
5. आभारोक्ति — 4:10-20
6. अन्तिम नमस्कार — 4:21-23
1
अभिवादन
मसीह यीशु के दास पौलुस और तीमुथियुस की ओर से सब पवित्र लोगों के नाम, जो मसीह यीशु में होकर फिलिप्पी में रहते हैं, अध्यक्षों और सेवकों समेत,
हमारे पिता परमेश्वर और प्रभु यीशु मसीह की ओर से तुम्हें अनुग्रह और शान्ति मिलती रहे।
धन्यवाद और कलीसिया के लिये प्रार्थना
मैं जब जब तुम्हें स्मरण करता हूँ, तब-तब अपने परमेश्वर का धन्यवाद करता हूँ, और जब कभी तुम सब के लिये विनती करता हूँ, तो सदा आनन्द के साथ विनती करता हूँ इसलिए कि तुम पहले दिन से लेकर आज तक सुसमाचार के फैलाने में मेरे सहभागी रहे हो। मुझे इस बात का भरोसा है* कि जिसने तुम में अच्छा काम आरम्भ किया है, वही उसे यीशु मसीह के दिन तक पूरा करेगा। उचित है कि मैं तुम सब के लिये ऐसा ही विचार करूँ, क्योंकि तुम मेरे मन में आ बसे हो, और मेरी कैद में और सुसमाचार के लिये उत्तर और प्रमाण देने में तुम सब मेरे साथ अनुग्रह में सहभागी हो। इसमें परमेश्वर मेरा गवाह है कि मैं मसीह यीशु के समान प्रेम करके तुम सब की लालसा करता हूँ। और मैं यह प्रार्थना करता हूँ, कि तुम्हारा प्रेम, ज्ञान और सब प्रकार के विवेक सहित और भी बढ़ता जाए, 10 यहाँ तक कि तुम उत्तम से उत्तम बातों को प्रिय जानो, और मसीह के दिन तक सच्चे बने रहो, और ठोकर न खाओ; 11 और उस धार्मिकता के फल से जो यीशु मसीह के द्वारा होते हैं, भरपूर होते जाओ जिससे परमेश्वर की महिमा और स्तुति होती रहे। (यशा. 15:8)
कैदी के रूप में सेवा
12 हे भाइयों, मैं चाहता हूँ, कि तुम यह जान लो कि मुझ पर जो बीता है, उससे सुसमाचार ही की उन्नति हुई है। (2 तीमु. 2:9) 13 यहाँ तक कि कैसर के राजभवन की सारे सैन्य-दल और शेष सब लोगों में यह प्रगट हो गया है कि मैं मसीह के लिये कैद हूँ, 14 और प्रभु में जो भाई हैं, उनमें से अधिकांश मेरे कैद होने के कारण, साहस बाँधकर, परमेश्वर का वचन बेधड़क सुनाने का और भी साहस करते हैं। 15 कुछ तो डाह और झगड़े के कारण मसीह का प्रचार करते हैं और कुछ भली मनसा से। (फिलि. 2:3) 16 कई एक तो यह जानकर कि मैं सुसमाचार के लिये उत्तर देने को ठहराया गया हूँ प्रेम से प्रचार करते हैं। 17 और कई एक तो सिधाई से नहीं पर विरोध से मसीह की कथा सुनाते हैं, यह समझकर कि मेरी कैद में मेरे लिये क्लेश उत्पन्न करें। 18 तो क्या हुआ? केवल यह, कि हर प्रकार से चाहे बहाने से, चाहे सच्चाई से, मसीह की कथा सुनाई जाती है, और मैं इससे आनन्दित हूँ, और आनन्दित रहूँगा भी।
19 क्योंकि मैं जानता हूँ कि तुम्हारी विनती के द्वारा, और यीशु मसीह की आत्मा के दान के द्वारा, इसका प्रतिफल, मेरा उद्धार होगा। (रोम. 8:28)
जीवित रहना मसीह है
20 मैं तो यही हार्दिक लालसा और आशा रखता हूँ कि मैं किसी बात में लज्जित न होऊँ, पर जैसे मेरे प्रबल साहस के कारण मसीह की बड़ाई मेरी देह के द्वारा सदा होती रही है, वैसा ही अब भी हो चाहे मैं जीवित रहूँ या मर जाऊँ। 21 क्योंकि मेरे लिये जीवित रहना मसीह है§, और मर जाना लाभ है। 22 पर यदि शरीर में जीवित रहना ही मेरे काम के लिये लाभदायक है तो मैं नहीं जानता कि किसको चुनूँ। 23 क्योंकि मैं दोनों के बीच असमंजस में हूँ; जी तो चाहता है कि देह-त्याग के मसीह के पास जा रहूँ, क्योंकि यह बहुत ही अच्छा है, 24 परन्तु शरीर में रहना तुम्हारे कारण और भी आवश्यक है। 25 और इसलिए कि मुझे इसका भरोसा है। अतः मैं जानता हूँ कि मैं जीवित रहूँगा, वरन् तुम सब के साथ रहूँगा, जिससे तुम विश्वास में दृढ़ होते जाओ और उसमें आनन्दित रहो; 26 और जो घमण्ड तुम मेरे विषय में करते हो, वह मेरे फिर तुम्हारे पास आने से मसीह यीशु में अधिक बढ़ जाए।
प्रयास और मसीह के लिये दुःख उठाना
27 केवल इतना करो कि तुम्हारा चाल-चलन मसीह के सुसमाचार के योग्य हो कि चाहे मैं आकर तुम्हें देखूँ, चाहे न भी आऊँ, तुम्हारे विषय में यह सुनूँ कि तुम एक ही आत्मा में स्थिर हो, और एक चित्त होकर सुसमाचार के विश्वास के लिये परिश्रम करते रहते हो। 28 और किसी बात में विरोधियों से भय नहीं खाते। यह उनके लिये विनाश का स्पष्ट चिन्ह है, परन्तु तुम्हारे लिये उद्धार का, और यह परमेश्वर की ओर से है। 29 क्योंकि मसीह के कारण तुम पर यह अनुग्रह हुआ कि न केवल उस पर विश्वास करो पर उसके लिये दुःख भी उठाओ, 30 और तुम्हें वैसा ही परिश्रम करना है, जैसा तुम ने मुझे करते देखा है, और अब भी सुनते हो कि मैं वैसा ही करता हूँ।
* 1:6 मुझे इस बात का भरोसा है: इसका मतलब यह है पौलुस ने जो कुछ कहा उसका सच पूरी तरह से आश्वस्त था। 1:10 उत्तम बातों को प्रिय जानो: सही और गलत क्या था, अच्छाई और बुराई क्या थी, इसकी समझ होना। 1:19 यीशु मसीह की आत्मा: वह आत्मा जो यीशु मसीह में था कि उसे परीक्षाओं का धीरज पूर्वक सामना करने के योग्य बनाए। § 1:21 क्योंकि मेरे लिये जीवित रहना मसीह है: ये उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था जिसके निमित्त उसने स्वयं को एकनिष्ठा में समर्पित कर दिया था।